Sunday, January 12, 2014

एक खुला ख़त अरविन्द केजरीवाल के नाम


श्री अरविन्द केजरीवाल जी,

अभी कुछ ही महीने पहले की बात है. चुनाव कैम्पेन का माहौल था. तमाम वादे-नारे कहे-सुने जा रहे थे. ऐसे में आपका एक विज्ञापन ऑटो के पीछे दिखाई दिया- “हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमांडो फ़ोर्स बनाएगी.” इरादा नेक ही लगा और मुद्दा भी मौजूं था. उसी वक्त आपको एक खुला ख़त लिखकर इस मुद्दे पर आपका विस्तृत विचार जानने की इच्छा हुई. लेकिन आप भी जानते हैं कि हमारे देश में जनता और नेता के बीच एक अबोला सा है. यथास्थितिवाद का फैशन है और ‘छोड़ो, इससे क्या होगा’ वाली उदासीनता भी है. हालांकि आपके आने का बाद स्थिति बदली है. ऐसा लगने लगा है राजनीति आम आदमी से दूर कोई हवा-हवाई चीज़ नहीं है और भ्रष्टाचार जैसे ज़मीनी मुद्दे पर भी चुनाव लड़-जीते जा सकते हैं. इसलिए उस चिट्ठी को लिखने की इच्छा दोबारा बलवती हुई. अंततः लिखे ही दे रही हूँ, ताकि सनद रहे.

इससे पहले कि दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बात की जाय, ये जान लेना ज़रूरी है कि दिल्ली में आखिर कौन लड़कियां रहतीं हैं और दिल्ली उनको क्या देती है? दिल्ली, मूल निवासियों और जाने पहचाने पड़ोस वाला शहर नहीं है. ये असीमित संभावनाओं का शहर है जहाँ लोग अपनी महात्वाकांक्षाओं को पूरा करने आते हैं. कस्बों से उठकर यहाँ आने वाली लड़कियां कॉल सेंटरों में काम कर रहीं हैं, मैकडोनाल्ड में पार्ट टाइम जॉब कर रहीं हैं, घरेलू कामगार हैं, यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. कर रहीं हैं, साल-दर-साल प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहीं हैं. वो सबकुछ कर रहीं हैं जिसकी इजाज़त बंदिशों की उमस भरा क़स्बाई परिवेश उन्हें नहीं देता.
विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियां दिन भर कौलेज के छतों-मीनारों-सेमिनारों में फेमिनिज़म, कम्यूनिज़म से लेकर डार्विन के सिद्धांतों पर गले फाड़ती हैं. आन्दोलनों में नारेबाज़ी करतीं, लिंगभेद की थ्योरिटिकली ऐसी- तैसी करतीं हैं. फिर घड़ी में आठ बजता देखकर सरपट भागतीं हैं ताकि हॉस्टल की समय-सीमा ना पार हो जाय. जो वोट देने की उम्र की हो चुकी हैं वो भी बात- बात में गार्जियन से कंसेंट फॉर्म भरवाती हैं. तुर्रा ये है कि ये सब उन्हीं की सुरक्षा के लिए तो है. यहाँ मेरी नीयत नियमों-अनुशासनों की भर्त्सना करने की नहीं है. लेकिन सुरक्षा और नियंत्रण में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? क्या किसी को सुरक्षा देने के लिए उसकी बुद्धि-विवेक और निर्णय क्षमता पर सवालिया निशान लगाना अपरिहार्य है?

इतने सब के बावजूद 16 दिसंबर जैसी कोई घटना हो ही जाती है और मीडिया उस पर टूट पड़ती है. दिल्ली की लड़कियों की बेचारगी पर स्पेशल प्रोग्राम बनते हैं जिसमें दिल्ली हमेशा विलेन होती है. घरवाले आतंकित होकर दिल्ली गयी लड़कियों को वापस बुलाने की जुगत में लग जाते हैं. सपनों को पूरा करने के लिए मिली मियाद, जो पहले ही छोटी थी, उसमें और भी कटौती हो जाती है. क्या दिल्ली को बदनाम और लड़कियों को आतंकित किये बिना इस समस्या से लड़ना मुमकिन नहीं है?
कहते हैं कि राजनीति संख्या का खेल है. महिलाएं आधी आबादी तो हैं लेकिन फिर भी किसी जाति या धर्म की तरह कोई वोट बैंक नहीं बनातीं. वो अलग-अलग धर्म, जातियों और क्लास के बीच बंटी हुई रहतीं हैं. इन वर्गों की समस्याओं को ही उनकी समस्या और उनके समाधान में ही महिलाओं की समस्या का समाधान निहित मान लेने की प्रवृत्ति रही है. पश्चिम में महिलाओं लम्बे समय तक मताधिकार ना देने के पीछे यही मानसिकता थी. हमारे अपने देश में भी आज़ादी के बाद मताधिकार देकर ये समझ लिया गया कि भुखमरी-ग़रीबी ही देश की मुख्य समस्याएँ हैं और इन वर्गों की महिलाओं की जो भी समस्याएँ हैं वो इनके निवारण के साथ ही ख़तम हो जायेंगीं. जो कि सत्तर के दशक में बड़ी मशक्कत से तैयार की गयी ‘टुवर्ड्स इक्वालिटी’ रिपोर्ट के हिसाब से  एक ग़लत अनुमान निकला. दहेज उत्पीड़न, भ्रूण हत्या से लेकर शैक्षिक और आर्थिक मुद्दों में औरतों की लगभग नगण्य भागीदारी जैसे तमाम मुद्दे सामने आने शुरू हुए.
ज़ाहिर है, महिलाओं की अपनी समस्याएँ तो हैं लेकिन इन मुद्दों को राजनीति में मिलने वाली की महत्ता का मौसमी उतार-चढ़ाव अक्सर महिलाओं पर होने वाली हिंसा की रिपोर्टों पर ही निर्भर रहा है. ऐसा लगता है जैसे जेंडर का मतलब सिर्फ़ औरतें हैं और लिंगभेद का मतलब सिर्फ महिलाओं के पर होने वाले शारीरिक अत्याचार ही हैं. हिंसा से इतर, लिंगभेद के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो कि महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी को ज़्यादा बाधित करते हैं. जैसे- महिला शौचालय और कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिये क्रचेज़ की व्यवस्था ना होना. ये मुद्दे अक्सर यौन अपराधों की आक्रामक खबरों और उन्हें मिलने वाले मीडिया कवरेज के पीछे छुप जाते हैं. ‘आप’ ने भी महिला मुद्दों का संज्ञान 16 दिसंबर की घटना के बाद ही लिया था. खैर, ‘देर आये दुरुस्त आये’ की तर्ज़ पर मुझे इस बात से कोई ऐतराज़ भी नहीं है. मेरी मंशा तो महिला सशक्तिकरण के मामले में आपका सैद्धांतिक स्टैंड जानने की है. क्या आपकी नीतियाँ भी ‘महिला-स्पेशल’ की बौछार करने और लैंगिक अपराध की दर नीचे लाने तक ही सीमित रहेंगी या लैंगिक समानता के बारे में आपकी पार्टी की कोई वृहद् विचारधारा भी है?
महिला बैंक से लेकर लेडीज़ बस और महिला पुलिस चौकी तक के वादे तो दूसरी पार्टियों ने भी किये हैं और कभी-कभी वो पूरे भी हुए हैं. दरअसल इस तरह से लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना बहुत आसान है और ऐसा करने में वाहवाही मिलने की गुंजाइश भी ज़्यादा है. लेकिन उन्हें पब्लिक स्पेस में उसी तरह से फिट कर पाना जिस तरह पुरुष हैं या फिर पब्लिक स्पेस को महिलाओं के लिए उतना ही अनुकूल बना पाना जितना वो पुरुषों के लिए है, ज्यादा मुश्किल काम है. अक्सर आसान काम कर लेने का आत्मसंतोष हमसे पड़ाव को ही मंजिल समझ लेने की भूल करवा देता है. ऐसे में ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि किसी भी क्षेत्र में ‘महिला स्पेशल’ श्रेणी, अपने आप में कोई समाधान ना होकर लैंगिक समानता तक पहुँचने की एक रणनीति भर है और अंततः उस श्रेणी को ख़त्म करने की तरफ़ बढ़ना है. यहीं पर राजनैतिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है. मैं जानती हूँ कि यहाँ आदर्शस्थिति की बात की जा रही है जिसे चुटकियों में नहीं पैदा किया जा सकता. वहां तक पहुँचने के लिए शायद इस लेडीज़-स्पेशल कैटेगरी का इस्तेमाल करना भी पड़े. लेकिन तब तक अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान लेनी है जब तक इन बैसाखियों की ज़रुरत ना रह जाय. चाहे वो बिजली कंपनियों की ऑडिट करने का निर्णय हो या फिर भ्रष्टाचार विरोधी हेल्प्लालाइन लाना हो, बाकी मामलों में भी आपने आसान और लोकप्रिय होने के बजाय कड़क और सिद्धांतवादी होने को तरजीह दी है, इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर भी आपसे अपेक्षाएं थोड़ी ऊंची ही हैं.
लैंगिक उत्पीड़न हर लड़की की ज़िंदगी का हिस्सा ही न हो, लेकिन इससे बचाने के लिए उन पर लादे गए सामाजिक और न्यायिक बंधन उनकी दिनचर्या बन जाते हैं. दिल्ली को बदनाम करने का असर अपराधियों पर हो ना हो उन हज़ारों लड़कियों के भविष्य पर ज़रूर होता है जिनके दिल्ली आने पर प्रतिबन्ध लग जाता है क्यूंकि वो एक ‘बुरा’ शहर है. इसका मतलब उनका देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों और बहुत सी बेहतरीन करियर संभावनाओं से वंचित रह जाना है, जो कि अपना आप में एक ‘सायलेंट’ लिंगभेद है, जिससे बचना जितना ज़रूरी है उतना ही मुश्किल भी.
इतना कुछ मांगकर शायद मतदाता का नेता पर जितना हक़ होता है उसका भी अतिक्रमण कर रही हूँ.  लेकिन जब माँगने की दीनता करनी ही है तो आसान चीज़ें क्यूँ माँगी जाएँ?. महिलाओं के लिए अलग से बैंक क्यूँ मांगूं, हर एक बैंक उनका होना चाहिए. वो सिर्फ लेडीज़ कम्पार्टमेंट या लेडीज़ बस के बजाय हर जगह हर वक्त सुरक्षित क्यूँ न महसूस करें? अलग से महिला पुलिस फ़ोर्स के बजाय पूरी पुलिस फ़ोर्स को ही जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश क्यों ना की जाय? महिलाएं भी नागरिक हैं और समान नागरिक का दर्जा देना उन्हें विशेषाधिकार दिए बिना भी संभव है. क्या ‘आप’ ये (कम से कम कोशिश) कर सकेंगे?

7 comments:

  1. Really Very well written !! I liked it. But again I wonder about the true role of a leader to attempt to achieve his goal. Why our society do not start to come up with sensitivity on these issues. I can give thousands of examples of insensitivity of so called modern society on such problems but here I think it is not required. I always think no leader can do very good even he starts with good until fundamental building block of nation elevates themselves. This is because leaders are just the mirror of society and they will also decides their short term goal for votes in a hope that they can do better in future. But anyway your attempt to write this is highly appreciative. Keep on writing.

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  2. अरविन्द जी! कहे देती हूँ, ताकि सनद रहे

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    1. जी हाँ, वही! :)

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    2. कोई पुस्तक लिख रही हैं क्या आप ?

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    3. फिलहाल तो नहीं. शायद कुछ सालों बाद इस दिशा में सोचूँ. अभी तो लिखना शुरू ही किया है बस.

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