Saturday, November 23, 2013

न्याय की भी 'प्रॉक्सी'?

हाल ही में समाज के अलग- अलग वर्गों से मिलती-जुलती खबरें आईं. तरुण तेजपाल ने एक रिपोर्टर से छेड़छाड़ की, दिल्ली में एक वरिष्ठ जज के एक लॉ इन्टर्न से छेड़छाड़ करने का मामला सामने आया और अफसरों, विधायकों और उनकी बीवियों ने अपनी घरेलू नौकरानी के साथ हैवानियत दिखाई. आख़िरी मामला भी सीधे तौर पर लगे ना लगे पर है लिंग आधारित हिंसा ही. घरेलू नौकर के रूप में महिलाओं को ही वरीयता मिलती है क्यूंकि हमारे हिसाब से एक पुरुष नौकर के मुक़ाबले वो ज्यादा दब्बू होंगी, कम तनख्वाह लेंगी और हमारा गुस्सा सहने की सीमा भी उनमें ज्यादा होगी. घर की चारदीवारियों में उनके साथ की गयी हिंसा को घर का अंदरूनी मामला बताकर कानूनी जांच को भी रोका जा सकता है. ये घर आखिर उन घरेलू नौकरों के कार्यस्थल ही हैं. फिर ये भी कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न का ही तो मामला हुआ! 
‘आजकल ये घटनाएं कितनी बढ़ गयीं हैं?’ आमतौर पर ऐसी खबरों के बाद हमारी प्रतिक्रया कुछ ऐसी ही होती है. सुनकर ऐसा लगता है कि पहले हम कुछ सही कर रहे थे और अब कुछ गड़बड़. पहले हम जो कर (नहीं) रहे थे उसकी लिस्ट कुछ यूं है-
-    माध्यम वर्ग और उच्च माध्यम वर्ग की स्त्रियों को उनके घर वाले नौकरियाँ नहीं करने दे रहे थे. (ध्यान रहे कि औरतों का काम करना कोई नया नहीं है, निम्न वर्ग की औरतें हमेशा से घरेलू नौकरों और दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करती आईं हैं, हालांकि उनके शोषण पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.)
-    महिलाओं का नाईट शिफ्ट में काम करना कानूनन वैध नहीं कर रहे थे, भले ही वो तमाम फैक्ट्रियों, अस्पतालों और कॉल सेंटरों में काम कर रहीं थी. इससे वे आर्थिक या लैंगिक शोषण की शिकायत करने की सोच भी नहीं सकतीं थी.
-    सेक्सुअल हरासमेंट कमेटी के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं दे रहे थे. इसके बावजूद कि ‘सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस’ का सबसे वीभत्स मुद्दा हमारे देश में ही हुआ है, (अरुणा शानबाग, जिन्हें हम इच्छा-मृत्यु के लिए ज्यादा जानते हैं) विशाखा गाइडलाइन्स आने में सालों लग गए.
बहरहाल कई क़ानून आये और स्थिति बदली. अगर सेक्चुअल हरासमेंट से मुक्त कार्यस्थल अब नहीं है तो पहले भी नहीं थे. हर तरह के रोजगार में महिलाओं की बढ़ती घुसपैठ, क़ानून की उपलब्धि और  लैंगिक उत्पीड़न की विस्तृत की गयी परिभाषा ने इन मुद्दों को ज्यादा गोचर बनाया है बस. हालांकि इसका लाभ सिर्फ एक ख़ास वर्ग ही उठा पा रहा है. इसकी वजह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की औरतों पर अपनी रोज़ी- रोटी बनाए रखने की मजबूरी होना भी है. ऐसे में ये हैरानी की बात नहीं कि विरोध की ज्यादातर आवाजें तुलनात्मक रूप से समृद्ध परिवारों की लड़कियों की तरफ से आ रही है.
हर एक कार्यस्थल पर रोजगार देने और पाने वाले के बीच असमानता का रिश्ता होता है. बॉस की बातें कितनी भी बेतुकी लगें उन्हें अक्सर मानना ही होता है. सहमति-असहमति का प्रश्न तो तब है जब असहमति जताना एक विकल्प हो न कि नौकरी छुड़वाने या प्रमोशन रुकवाने का सबब. ऐसे में तरुण तेजपाल का इसे ‘जजमेंट एरर’ या ‘शराब का नशा’ कहना कितना हास्यास्पद है! यह तो एकदम सटीक निर्णय है. अपराधकर्ता को पता है कि उसकी सत्ता कहाँ चलेगी.  नौकरी और बॉस की कृपादृष्टि बचाए रखने के लिए कौन चुप रहेगा? नहीं रहेगा तो क्या धमकियां देनी हैं? और फिर ‘मौनम् सम्मति लक्षणं’ की तर्ज पर इसे ‘कन्सेन्चुअल’ का जामा कैसे पहनाना है? समाज की सफ़ाई करने की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भी अपनी इस ताकत का इस्तेमाल लैंगिक उत्पीड़न के लिए कर रहें हैं तो इसमें हैरानी कैसी? जेंडर सेंसिटिविटी न तो हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं और ना ही बौद्धिकता नापने की कसौटी. वैसे भी किसी बौद्धिक निर्वात में रहकर लैंगिक समानता की बातें करना एक बात है, व्यवहारिकता की बयार के बीच उन सिद्धांतों को संभाले रखना बिल्कुल अलग.
ये एक अच्छा संकेत है कि तरुण तेजपाल मामले में सभी एकमत होकर कानूनी जांच की मांग कर रहें हैं लेकिन इसमें शायद हमारा एक बड़े आदमी को मटियामेट होते देखने का सुकून भी शामिल है, तमाम चैनलों की चटखारे ले कर की जा रही रिपोर्टिंग इस कुंठा का सबूत है. तेजपाल ने अपनी पत्रकारिता से कई धुर विरोधी भी पैदा किये हैं, जो इस बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और विक्टिम की पहचान छुपाना और मुद्दे के साथ संवेदनशीलता बरतना हाशिये पर है. ऑनलाइन एक्टिविज़म की चिल्ला-चिल्ली के बीच पीड़िता का पक्ष गायब है.
हम हमेशा यही मानते और मनवाते आये हैं कि लैंगिक उत्पीड़न में जो आहत हुआ उसकी कोई ग़लती नहीं, चाहे उसने शराब पी हो या कैसे भी कपड़े पहने हों, उसका ना कहने का अधिकार उसके अतीत में कही गयी ‘हाँ’ के भार से मुक्त हो. अपना चरित्र की दृढ़ता साबित करने का भार उस पर क्यों आये? ठीक उसी तर्क से भीड़ की न्याय-लिप्सा शांत करने का भार उस पर क्यूं आये? क़ानून की धाराएं सबके लिए एक जैसी हो सकतीं हैं लेकिन न्याय की परिभाषा नहीं. न्याय मिलने और मुद्दे के समापन का संतोष किसी को माफी देकर भी मिल सकता है, किसी को आतंरिक शिकायत करके, किसी को दूसरों को जागरूक करके तो किसी को सिर्फ ब्लॉग लिखकर जैसा कि उस लॉ इन्टर्न ने किया. न्याय सबके लिए टेलर मेड नहीं हो सकता. इन्हीं सब कारणों से ‘आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट’ या आतंरिक ‘एंटी सेक्चुअल हरासमेंट कमेटी’ बनाने जैसे प्रावधान है. ये सच है कि सामाजिक दबावों के चलते भी पीड़ित को केस वापस लेने पर मजबूर किया जा सकता है. लेकिन आन्दोलनों का दबाव बना कर विक्टिम को पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने पर मजबूर करना और न करने पर कमज़ोर कह कर उसकी आलोचना करना उस सामाजिक दबाव का दूसरा रूप ही तो है. कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी चलतीं है. किसी को न्याय पाने का संतोष अगर उससे पहले ही मिल जाय और फिर भी उसे ये कड़वा अनुभव वकीलों और पुलिसवालों के क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन में बार-बार दोहराना पड़े तो क्या ये उसके साथ एक और अन्याय नहीं है? ये सच है कि ज्यादातर अपराध सिर्फ व्यक्ति नहीं स्टेट के विरुद्ध होते हैं. पीड़ित अगर फैसले लेने की दशा में ना हो तो उसकी और से किसी भी प्रत्यक्षदर्शी या जागरूक नागरिक को रिपोर्ट लिखाने का हक़ है जैसा कि घरेलू हिंसा के मामलों में अक्सर होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि पीड़ित पर सामाजिक न्याय की परिभाषाएं थोपी जाएँ और उन पर समाज के सामने एक आदर्श या उदाहरण प्रस्तुत करने की नैतिक ज़िम्मेदार मढ़ दी जाय. स्टेट की ज़िम्मेवारी है के अपने नागरिकों को न्याय पाने के तमाम विकल्प और रास्ते उपलब्ध कराये. एक्टिविस्ट और स्टेट मिलकर ज्यादा से ज्यादा ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि शिकायतकर्ता के पास हर विकल्प खुला रहे. अब उसे कौन सा विकल्प अपनाना है ये अधिकार उसी के पास रहे तो अच्छा है. सामाजिक दबाव और जबरन समाज सुधार के दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है जो कि शिकायत करने वाले की इच्छा का सम्मान करने पर ही मुमकिन है.


Friday, November 8, 2013

एक ऋतुमती परुष के प्रसव की कहानी

ये कहानी अरुणाचलम् मुरुगनाथम् के जीतने से ज्यादा हमारे हारने की है. मुरुगनाथम् तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिले के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं. उनकी जिन्दगी अपने गाँव के बाकी लोगों जैसी ही थी, नाम-मात्र की पढ़ाई, फैक्ट्री में नौकरी, कच्ची उम्र में घर वालों की पक्की की हुई शादी.
पत्नी को एक दिन हाथ पीछे बांधे, कुछ छुपा कर ले जाते देखकर पूछा, ‘क्या छुपा रही हो?’
तुमसे मतलब?’ पत्नी से रूखा सा उत्तर मिला.
लेकिन मुरुगनाथम् ने पत्नी के हाथ में मैला कुचैला कपड़ा देख ही लिया जिसे हम अपने घरों में झाड़ने-पोंछने के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे. वो वजह ताड़ गए और पत्नी से पूछा कि वो टी.वी. पर दिखाए जाने वाले सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल क्यूँ नहीं करतीपत्नी के कहा कि ऐसा किया तो घर के लिये दूध खरीदना बंद करना पड़ेगा. नयी-नयी पत्नी को इम्प्रेस करने के लिए सेनेटरी नैपकिन खरीदने के इरादे से अरुणाचलम् मुरुगनाथम् एक दूकान में घुसे. दुकानदार नैपकिन के पैकेट जब भी किसी को देता तो इधर-उधर देखकर जल्दी-जल्दी उन्हें अखबार में लपेटकर काली पन्नियों में छुपा देता, मानों कोई प्रतिबंधित ड्रग्स बेच रहा हो. उन्होंने नैपकिन का एक पैकेट हाथ में उठाया, वजन कोई दस ग्राम रहा होगा और दाम दो सौ से भी ऊपर. हैरान-परेशान मुरुगनाथम् ने एक नैपकिन खुद ही बनाने का फैसला किया. रूई खरीदी, उसके ऊपर कपड़ा लगा कर आढ़ी-टेढ़ी सिलाई मारी और बीवी को पकड़ा दिया. एक तो असंतुष्ट बीवी का खराब फीडबैक और उस पर इस बात की शर्म कि अपने घर-गाँव की औरतों के लिए पैड बनाने के लिए एक विदेशी कंपनी की जरूरत है. बस तब से कम दाम के नैपकिन बनाने की खब्त सवार हो गयी. नयी-नयी तरकीबों से पैड बनाते और पत्नी को पकड़ा देते. पत्नी महीने में एक ही बार फीडबैक दे सकती थी, इसलिए बहनें उनका अगला निशाना बनी. लेकिन कोई इस बारे में बात तक करने को राज़ी नहीं था. हारकर उन्होंने शहर के मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क साधने की कोशिश की. उनमें भी वही झिझक. शर्म-धरम की संस्कृति से ऐसे बेशरम प्रयोगों के लिए वॉलंटीयर कहाँ से आते? ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की हार है जो सामाजिक रूढ़ियों के आगे अक्सर दम तोड़ देती है.
वैसे भी जो बरसों से पीरियड्स के नाम पर सकुचा जाना ही सीखती आयीं हैं, जिनकी दादी-नानी-माँ ने मिलकर उन्हें मासिक धर्म में सिर्फ खुद को अपवित्र समझने का पाठ पढ़ाया है, उनमें ऐसी बेझिझक निर्भीकता कहाँ से आयेगी कि वो किसी पुरुष के सामने इस बारे में बात कर सकें. कुछ लड़कियों के फीडबैक के सहारे प्रयोग थोड़ा आगे बढ़ा लेकिन मुरुगनाथम् समझ गए थे कि लड़कियों के भरोसे नहीं रहा जा सकता. बस, फिर जैसे नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रमा पर जाने वाले पहले पुरुष बने थे, तेनजिंग नोर्गे एवरेस्ट पे चढ़ाई करने वाले पहले पुरुष बने थे वैसे ही मुरुगनाथम् सेनेटरी पैड पहनने वाले पहले पुरुष बन गए. जानवरों के खून से भरा एक लचीला ब्लैडर उनके हाथ में होता जो एक नली के सहारे सेनेटरी पैड से जुड़ा होता. मुरुगनाथम् चलते-फिरते, साइकिल चलाते थोड़ा-थोड़ा खून पम्प करते जाते. उनके अनुसार ये उनके सबसे मुश्किल दिन थे. औरतों की समस्याएँ जानने के लिए उन्होंने खुद औरतों की दिनचर्या और दिमाग में उतरने फ़ैसला किया. यहाँ वो हमारी पौरुष की परिभाषा को हराते हैं और मासिक धर्म से जुड़े अशुद्धि और कमज़ोरी जैसे पूर्वाग्रहों को भी. और ऐसा करके अच्छा ही करते हैं.
लेकिन अब तक उनकी पत्नी शांती का धैर्य जवाब दे चुका था. उन्हें शक होने लगा कि मुरुगनाथम् लड़कियों से बात करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. वो उन्हें छोड़कर चली गयीं. कुछ महीनों में तलाक का नोटिस भी आ गया. लेकिन वो सपना ही क्या जो आपको चैन से सोने दे. जुनूनी मुरुगनाथम् ने लड़कियों से उनके इस्तेमाल किये हुए पैड माँगने शुरू कर दिए. वो उनका कभी खुद परीक्षण करते कभी किसी टेस्टिंग लैब में भेजते. उनकी माँ ने पहले उन पर से भूत-प्रेत उतरवाने के जतन किये और आखिरकार अपनी क़िस्मत ठोंक कर घर छोड़ दिया. गाँव वालों को लगता कि मुरुगनाथम् को कोई गुप्त रोग हो गया है. दोस्त उन्हें देखकर रास्ता बदलने लगे. आखिरकार उन्होंने पता लगा ही लिया कि सेनेटरी पैड बनते तो लकड़ी की लुगदी से ही हैं लेकिन उन्हें बनाने की भारी- भरकम मशीन बहुत महंगी है. मुरुगनाथम् उस मशीन एक छोटी और सस्ती नक़ल बनाने की कोशिश करने लगे.
आज जब मुरुगनाथम् आई.आई.टी और आई.आई.एम. में लेक्चर देते हैं तो कहते हैं, “मैं आपलोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं था, इसलिए तमाम असफलताओं के बाद भी रुका नहीं. पढ़ा- लिखा होता तो कब का रुक जाता.उनका ये कथन सबसे करारी चोट करता है. पढ़- लिख कर हम सबने एक जैसी डिग्रियां पायीं और अपनी मौलिकता खो दी. स्थाई नौकरी पाने की जद्दोजहद, कुछ नया कर दिखाने के जूनून पर हावी हो गयी. ये हमारे अभिजात्य की हार है जिसकी ठसक में हमने मुरुगनाथम् जैसों को हमेशा हेय समझा है.  

अंततः वो मशीन बन गयी. कम लागत में बढ़िया गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने का तरीका मिल गया. उस देश में जहां सेनेटरी नैपकिन की पहुँच शहरी इलाकों में सात प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में सिर्फ दो प्रतिशत है, वहां ये तकनीक मुरुगनाथम् के लिए सोने की चिड़िया साबित हो सकती थी. लेकिन उन्होंने न सिर्फ इसे पेटेंट कराने से मना कर दिया बल्कि ये मशीनें ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त में इस्तेमाल करने को दे दी. उनका लक्ष्य इसके ज़रिये ग्रामीण महिलाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा रोज़गार और स्वास्थ्यकर ज़िन्दगी मुहैया कराना है. यहाँ वो हमारे अर्थशास्त्र को हराते हैं जो सिर्फ मांग-आपूर्ति और अधिकतम लाभ का रट्टा लगाता है. बस यही एक हार हमें नहीं कचोटती.
आज सैकड़ों गाँव और कई देशों में मुरुगनाथम् की तकनीक और उनके नाम की धाक पहुँच चुकी है. उनके जीवन पर मेंसट्रूअल मैननामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है. आई.आई.टी से सर्वश्रेष्ठ आविष्कारसमेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं. लेकिन मुरुगनाथम् को अभी भी चैन नहीं मिला है. वे वर्ष २०३० तक इस तकनीक को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचाना चाहते है. तभी उनकी रजोनिवृतिहो पायेगी. इसे उन्होंने भारत की सेनेटरी पैड क्रान्तिका नाम दिया है. भारत की कुछ जनजातियों में तरुण कन्या के पहले मासिक-स्राव पर पर्व मनाया जाता है. क्योंकि अब वो प्रजनन करने लायक हो गयी है और वंशवृद्धि कर सकती है. इसी तरह मुरुगनाथम् के मासिक धर्म के फलदायी होने का एक उत्सव हम सबको मनाना चाहिए. इसी बहाने कम से कम एक प्रतिबंधित विषय पर बात तो हो सकेगी.

और चूंकि हम सबको सुखान्त पसंद है, इसलिए बता दूं कि अरुणाचलम् मुरुगनाथम् की पत्नी और माँ उनके पास वापस आ चुकी हैं!